सनातन धर्म में पूजा के दौरान शंख बजाने का विशेष महत्व है। इतना ही नहीं हिंदू धर्म के अनुयायी किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करने के लिए शंख जरूर बजाते हैं। वहीं पुजारी शंख में जल डालकर पवित्रीकरण मंत्र का जाप करते हुए सभी दिशाओं में और उपस्थित लोगों पर जल छिड़कते हैं। सनातन धर्म में शंख का इतना महत्व होने के बावजूद भी चक्र और चक्रधारी भगवान विष्णु के मंदिर में ही शंख नहीं बजाया जाता है। दरअसल बद्रीनाथ में पूजा के दौरान कभी भी शंख नहीं बजाया जाता है। क्या आप जानते हैं कि आखिर वो क्या वजह है, जिसकी वजह से बद्रीधाम में शंख बजाना वर्जित है?
बद्रीधाम उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी के तट पर है। भगवान बद्री विशाल को पंच बद्री में से पहला बद्री माना जाता है। इस मंदिर के 7वीं-9वीं शताब्दी में बनने के प्रमाण मिलते हैं। मंदिर में भगवान बद्रीनारायण की एक मीटर ऊंची शालिग्राम मूर्ति स्थापित है। मान्यता है कि इसे 8वीं शताब्दी में आदिगुरु शंकराचार्य ने नारद कुंड से निकालकर स्थापित किया था। सनातन धर्म के अनुयायियों की भगवान बद्री विशाल में गहरी आस्था है। बद्री विशाल के कपाट खुलने पर यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। इस मंदिर में शंख न बजाने के पीछे धार्मिक, प्राकृतिक और वैज्ञानिक कारण हैं। सबसे पहले जानते हैं कि बद्री विशाल में शंख न बजाने के पीछे क्या धार्मिक कारण हैं?
धार्मिक कारणों से जुड़ी हैं माता लक्ष्मीबद्रीनाथ धाम में शंख न बजाने के पीछे धार्मिक मान्यता यह है कि देवी लक्ष्मी बद्रीनाथ धाम में तुलसी के रूप में ध्यान कर रही थीं। जब वे ध्यान कर रही थीं, तब भगवान विष्णु ने शंखचूर्ण नामक राक्षस का वध किया था। हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत या अंत में शंख बजाया जाता है, लेकिन शंखचूर्ण का वध करने के बाद भगवान विष्णु ने यह सोचकर शंख नहीं बजाया कि इससे तुलसी रूप में ध्यान कर रही माता लक्ष्मी का ध्यान भंग हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आज भी बद्रीनाथ धाम में शंख नहीं बजाया जाता। इसका कारण एक राक्षस से जुड़ा है।
एक और कहानी प्रचलित है कि हिमालय क्षेत्र में राक्षसों का बहुत बड़ा आतंक था। वह पूरे क्षेत्र में भयंकर उत्पात मचाते थे। उनके कारण ऋषिगण मंदिर में भगवान की पूजा भी नहीं कर पाते थे। इतना ही नहीं, ऋषिगण अपने आश्रमों में भी शाम को ध्यान नहीं कर पाते थे। राक्षस ऋषि मुनियों को अपना भोजन बना लेते थे। यह सब देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती से मदद की प्रार्थना की। इसके बाद मां भगवती कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और खड्ग से सभी राक्षसों का नाश करने लगीं।
जब मां भगवती राक्षसों का संहार कर रही थीं, तब दो राक्षस आतापी और वातापी भाग निकले। राक्षस आतापी ने मंदाकिनी नदी में शरण लेकर अपनी जान बचाई। उसी समय राक्षस वातापी बद्रीनाथ मंदिर में रखे शंख के अंदर छिप गया। मान्यता है कि शंख बजाने से राक्षस वातापी बाहर आ जाएगा। इसीलिए आज भी वहां शंख नहीं बजाया जाता।
ये हैं वैज्ञानिक और प्राकृतिक कारणबद्रीनाथ धाम में बर्फबारी के दौरान पूरा बद्री क्षेत्र बर्फ की सफेद चादर से ढक जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, बद्री क्षेत्र में अगर शंख बजाया जाए तो उसकी ध्वनि बर्फ से टकराकर प्रतिध्वनि पैदा करेगी। इससे बर्फ की विशाल चादर में दरार पड़ने की आशंका रहती है। इतना ही नहीं, अगर प्रतिध्वनि के कारण बर्फ की चादर में गहरी दरार पड़ जाए तो बर्फीला तूफान भी आ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच सकता है। शंख की प्रतिध्वनि से भूस्खलन का खतरा भी पैदा हो सकता है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए बद्रीधाम में शंख नहीं बजाया जाता है।
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