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दुनिया का 5वां सबसे बड़ा 'रेयर अर्थ भंडार' भारत के पास, फिर चीन से कैसे पिछड़ गया?

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नई दिल्ली: भारत सरकार एक बार फिर दुर्लभ पृथ्वी तत्वों (rare earth elements) के उत्पादन को बढ़ाने पर जोर दे रही है। यह कदम इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ये तत्व आज की इलेक्ट्रॉनिक्स दुनिया की रीढ़ हैं। भारत ने 1950 में ही Indian Rare Earths Limited ( IREL ) की स्थापना करके इस क्षेत्र में शुरुआत की थी, लेकिन चीन की तरह इस क्षेत्र में अपनी धाक नहीं जमा पाया। आज भी भारत अपनी जरूरतों के लिए काफी हद तक आयात पर निर्भर है। अब सरकार इस दिशा में क्या नया कर रही है और भारत पहले मौका क्यों चूक गया, यह जानना जरूरी है। भारत के पास वर्तमान में दुनिया का 5वां रेयर अर्थ भंडा है।

चीन से पीछे कैसे रह गया भारत
भारत रेयर अर्थ के उत्पादन में चीन से पीछे छूट गया। इसकी मुख्य वजह शुरुआती दौर में कम मांग के कारण IREL का रेयर अर्थ पर ध्यान न देना और बीच की रेत से मिलने वाले अन्य खनिजों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना रहा। साथ ही, कड़े नियमों ने भी इस क्षेत्र में भारत की प्रगति को रोका।


वहीं, परियोजनाओं की लंबी परिपक्वता अवधि और प्रोत्साहनों के अभाव ने निजी क्षेत्र को इस क्षेत्र से काफी हद तक दूर रखा है। भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा दुर्लभ मृदा भंडार है और वैश्विक उत्पादन में इसका योगदान एक प्रतिशत से भी कम है।


चीन पर निर्भरता कम करने की कोशिश
परमाणु ऊर्जा विभाग के अधीन कार्यरत आईआरईएल ने आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में स्वदेशी तकनीक पर आधारित आरईपीएम के लिए एक विशेष संयंत्र स्थापित किया है। सरकार ने दुर्लभ मृदा खनिजों के लिए चीन पर भारत की निर्भरता कम करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन आईआरईएल पिछले एक साल से बिना किसी अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक के चल रहा है।
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