New Delhi, 23 अगस्त . हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में कुछ ऐसी हस्तियां रही हैं, जिन्होंने अपनी कला से न केवल संगीत की दुनिया को समृद्ध किया बल्कि उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने का काम किया. उन्हीं में से एक हैं पंडित बसवराज राजगुरु, जो एक शास्त्रीय गायक थे. उनकी गायकी में किराना, ग्वालियर और आगरा घरानों की विशेषताओं का अनूठा समन्वय देखने को मिलता है, जिसने उन्हें संगीत प्रेमियों के बीच अमर बना दिया.
‘हिंदुस्तानी संगीत के राजा’ के नाम से मशहूर पंडित बसवराज राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1917 को उत्तर कर्नाटक के धारवाड में हुआ था. वह विद्वानों, ज्योतिषियों और संगीतकारों के परिवार से ताल्लुक रखते थे, जिस वजह से उनकी संगीत में रुचि बढ़ी. उनके पिता, महंतस्वामी, कर्नाटक के एक मशहूर संगीतकार थे, जिन्होंने बसवराज को कम उम्र में ही संगीत की शिक्षा देना शुरू कर दिया था.
बसवराज का बचपन से ही संगीत से गहरा लगाव था. बताया जाता है कि 11 साल की उम्र में वे नाटक मंडली में शामिल हुए और बाल नट के रूप में गायन शुरू किया. जब उनकी उम्र 13 साल थी तो उनके सिर से पिता का साया उठ गया, लेकिन इसके बावजूद उनकी संगीत शिक्षा में अड़चनें नहीं आईं और उनके चाचा ने उनकी संगीत शिक्षा को आगे बढ़ाने में मदद की.
1936 में पंचाक्षरी गवई ने बसवराज को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया. उनके मार्गदर्शन में बसवराज ने संगीत की बारीकियां सीखीं. अपने गुरु के निधन के बाद बसवराज ने अपनी संगीत साधना जारी रखी और उन्होंने कई महान गुरुओं से संगीत सीखा, जिनमें सवाई गंधर्व, सुरेशबाबू माने, उस्ताद वहीद खान और उस्ताद लतीफ खान शामिल थे.
बसवराज की गायकी में किराना, ग्वालियर, और आगरा घरानों की विशेषताएं देखने को मिलती थीं. उनकी शैली में किराना घराने की मधुरता, ग्वालियर का रागमाधुर्य, और आगरा की बोल-तान (बंदिश के शब्दों को ही तान में पिरोना) की विशेषता थी. बताते हैं कि बसवराज लगभग आठ से अधिक भाषाओं में गा सकते थे, जो उनके संगीत के प्रति प्रेम को दर्शाता है. इसी कारण 1940 तक बसवराज राजगुरु की संगीत साधना की ख्याति पूरे भारत में फैल चुकी थी. उन्होंने देशभर में कई संगीत समारोहों में प्रस्तुतियां दीं.
पंडित बसवराज राजगुरु अपनी संगीत साधना और समारोहों के प्रति इतने समर्पित थे कि वे छोटी-छोटी बातों का भी खास ख्याल रखते थे. संगीत समारोहों के लिए यात्रा करते समय वे धारवाड़ से पीने का पानी साथ लाने का खास ख्याल रखते थे ताकि उनकी सेहत और गायन पर कोई असर न पड़े.
इसके अलावा, 1947 में एक चमत्कारिक घटना घटी, जब वे भारत-पाकिस्तान सीमा पर दंगाई भीड़ के बीच फंस गए थे. अपनी सूझबूझ और भाग्य के सहारे वे इस खतरनाक स्थिति से सुरक्षित बच निकले, जो उनकी जीवन यात्रा के लिए एक अविस्मरणीय क्षण बन गया.
इस सुरसाधक को 1975 में पद्मश्री और 1991 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. 21 जुलाई 1991 को बसवराज राजगुरु ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उनके निधन से संगीत जगत को अपूरणीय क्षति हुई, लेकिन उनकी गायकी और रचनाएं आज भी संगीत प्रेमियों के बीच जीवित हैं.
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एफएम/केआर
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