"सामान्य बुद्धि और अच्छी समझ के इस्तेमाल के लिए बधाई."
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान के बीच की इन्हीं शब्दों में व्याख्या की थी. 10 मई को शाम पांच बजे जब ट्रंप ने युद्ध विराम की अचानक घोषणा की तो यह कई तरह से असहज करने वाला था.
ट्रंप ने इसकी घोषणा सोशल मीडिया पर की और भारतीयों को युद्धविराम की पहली जानकारी भारत या पाकिस्तान से नहीं बल्कि अमेरिका के राष्ट्रपति से मिली. अमेरिका ने केवल जानकारी ही नहीं दी बल्कि कई ऐसी बातें कहीं जो भारत की विदेश नीति के उलट हैं.
जैसे ट्रंप ने अपनी पोस्ट में लिखा था, ''अमेरिका ने पूरी रात पाकिस्तान और भारत के बीच मध्यस्थता की और इसके बाद दोनों देश पूर्ण और तत्काल युद्धविराम पर सहमत हो गए हैं.''
भारत की यह नीति रही है कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मसला है और इसमें किसी तीसरे देश की मध्यस्थता स्वीकार्य नहीं है.
भारत किसी भी द्विपक्षीय विवाद में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को ख़ारिज करता रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद में भी भारत की यही नीति है. अपने पहले कार्यकाल में भी ट्रंप ने जुलाई 2019 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सामने कश्मीर पर मध्यस्थता की पेशकश की थी. तब ट्रंप की इस पेशकश को भारत ने तत्काल ख़ारिज कर दिया था.
लेकिन बात केवल ट्रंप की नहीं है. अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने भी युद्ध विराम को लेकर , उसमें कुछ ऐसी बातें थीं, जिन पर सवाल उठ रहे हैं. जैसे रुबियो ने लिखा है कि भारत और पाकिस्तान विवादों को सुलझाने के लिए किसी तीसरे देश में बात करेंगे.
अमेरिका की तरफ़ से युद्धविराम की घोषणा पर भारत की तरफ़ से जो प्रतिक्रिया आई, वो बहुत गर्मजोशी वाली नहीं थी. एस जयशंकर ने ट्रंप और रुबियो की घोषणा के बाद एक्स पर जो लिखा, उससे साफ़ दिख रहा था कि घोषणा को लेकर दोनों देशों में बहुत समन्वय नहीं था या भारत अमेरिकी घोषणा की हर बात से बहुत सहमत नहीं था.
जयशंकर ने अपनी पोस्ट में कहीं भी अमेरिका का नाम नहीं लिया है कि उसने युद्धविराम के लिए मध्यस्थता की. , ''भारत-पाकिस्तान गोलीबारी और सैन्य कार्रवाई रोकने के लिए एक सहमति पर पहुँचे हैं. आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत समझौता नहीं करेगा और यही रुख़ आगे भी रहेगा.''

जयशकंर की इस पोस्ट को मार्को रुबियो ने रीपोस्ट किया है लेकिन दोनों की बातों में फ़र्क़ साफ़ दिख रहा है. भारतीय विदेश मंत्री ने कहीं नहीं कहा कि अमेरिका की मध्यस्थता में युद्धविराम हुआ है और भारत किसी न्यूट्रल साइट पर विवाद को सुलझाने के लिए पाकिस्तान से बात करेगा.
दूसरी तरफ़ अमेरिका की इस घोषणा पर पाकिस्तान ने गर्मजोशी दिखाई और कहा. हमने भारत के पूर्व डिप्लोमैट जी पार्थसारथी से पूछा कि क्या अमेरिका ने युद्ध विराम की घोषणा के ज़रिए भारत को असहज किया है?
जी पार्थसारथी कहते हैं, ''अगर ट्रंप की भाषा को आधार बनाएंगे तो भारत के लिए असहज करने वाला है. लेकिन इसे दूसरे तरीक़े से देखने की ज़रूरत है. ट्रंप का आकलन भाषा और भाषण के आधार पर नहीं होना चाहिए. असल में क्या होता है, हमें वो देखना चाहिए. पाकिस्तान के पंजाब तक में हमला कर देना क्या बिना ट्रंप की हरी झंडी के हुआ है? ज़ाहिर है कि ट्रंप का ग्रीन सिग्नल था. भारत ने अपना मक़सद हासिल कर लिया है और इसके बाद युद्धविराम की घोषणा कोई भी करे, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है.''
पूर्व विदेश सचिव और अमेरिका में भारत की राजदूत रहीं निरूपमा मेनन राव मानती हैं कि ट्रंप ने पूरे मामले में भारत और पाकिस्तान दोनों को एक ही तराजू पर रखने की कोशिश है.
ने एक्स पर लिखा है, ''10 मई को राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने बयान में युद्ध विराम के लिए एक स्वर में जिस तरह से पाकिस्तान और भारत की प्रशंसा की है, उससे दक्षिण एशिया की जियोपॉलिटिक्स की जटिलता साफ़ झलकती है. ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान दोनों को एक ही तराजू पर रखा जबकि चीन को काउंटर करने के मामले में भारत अमेरिका का रणनीतिक साझेदार है और इस क्षेत्र में भारत की भूमिका ज़्यादा बड़ी है.''
निरूपमा राव ने लिखा है, ''हालांकि भारत ने आधिकारिक चैनल और मीडिया के ज़रिए अमेरिका मध्यस्थता की बात को ख़ारिज किया और कहा कि युद्ध विराम द्विपक्षीय बातचीत के ज़रिए हुआ है. भारत ने कश्मीर और पाकिस्तान से जुड़े आतंकवाद की संवेदनशीलता पर अपना रुख़ स्पष्ट किया है. मेरा मानना है कि अमेरिका भारत का रणनीतिक पार्टनर है और इस साझेदारी को क्षणिक घटनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए.''
थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्टडीज एंड फॉरन पॉलिसी के उपाध्यक्ष प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत भी मानते हैं कि ट्रंप ने जिस भाषा में युद्ध विराम की घोषणा की उससे पहली नज़र में यह लगता है कि समन्वय की कमी थी.
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ''भारत ने अपने आधिकारिक बयान में स्पष्ट कर दिया है और ट्रंप की घोषणा के बाद जो कन्फ्यूजन था, उसका जवाब मिल गया है. मुझे नहीं लग रहा है कि भारत किसी के दबाव में आ रहा है. ऑपटिक्स के तौर पर ट्रंप की भाषा में समस्या ज़रूर है लेकिन मुझे नहीं लगता है कि इसके पीछे ट्रंप की कोई बड़ी सोच है. ट्रंप की भाषा ऐसी ही होती है. वो कई बार बहुत ही एकतरफ़ा बोलते हैं.''
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ''अब ऐसा नहीं है कि कोई भी कुछ कहेगा और भारत सुन लेगा. भारत को पता था कि अमेरिका में ट्रंप प्रशासन है फिर पाकिस्तान के पंजाब तक में हमला किया. डिस्कोर्स के तौर ज़रूर ट्रंप ने जटिलता बढ़ाई है और संसद में विपक्षी पार्टियां सरकार को घेरेंगी. ट्रंप कहकर आए थे कि यूक्रेन और रूस की जंग 24 घंटे में रुकवा देंगे लेकिन कर नहीं पाए. ट्रंप को क्रेडिट लेने की जल्दी थी. अमेरिका का आना स्वाभाविक था लेकिन संघर्ष विराम पाकिस्तान को करना था और ट्रंप ने पाकिस्तान को मना लिया तो भारत को स्वीकार करने में क्यों दिक़्क़त होती?''
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ''भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील को लेकर बातचीत चल रही है. ऐसे में युद्धविराम को लेकर भारत पर भी दबाव था. पाकिस्तान को भी आईएमएफ़ का क़र्ज़ चाहिए था तो उस पर भी दबाव रहा होगा. मुझे लगता है कि अमेरिका ने आईएमएफ़ और ट्रेड डील कार्ड खेला होगा और दोनों देशों में सहमति बनाने में मदद मिली होगी. भारत ने आईएमएफ़ में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ वोटिंग नहीं की थी. मतलब इसकी भूमिका पहले से ही तैयार हो गई थी.''
लेकिन हाल के वर्षों में अमेरिका की विश्वसनीयता को लेकर दुनिया भर में बहस बढ़ी है. ख़ास कर ट्रंप के आने के बाद और कहा जा रहा है कि अमेरिका पर एक भरोसेमंद पार्टनर के रूप में विश्वास नहीं किया जा सकता है. अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला लिया था जबकि तालिबान के फिर से सत्ता में आने का डर था और यह डर साबित भी हुआ.
पाकिस्तान शीत युद्ध से ही अमेरिकी खेमे में रहा है लेकिन अब भारत अमेरिका के लिए ज़्यादा अहम हो गया है. इस अहमियत के बावजूद भारत और अमेरिका के संबंधों में आशंका और अविश्वास के बादल पूरी तरह से छँटे नहीं हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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