एनसीईआरटी की आठवीं क्लास की सोशल साइंस की नई किताब में बाबर को बर्बर, हिंसक विजेता और पूरी आबादी का सफाया करने वाला बताया गया है.
वहीं अकबर के शासन को क्रूरता और सहिष्णुता का मिला-जुला रूप बताया है. इसके अलावा औरंगज़ेब को मंदिर और गुरुद्वारा तोड़ने वाला बताया गया है.
एनसीईआरटी का कहना है कि इतिहास के कुछ अंधकारमय अवधि को समझाना ज़रूरी है. इसके साथ ही किताब के एक अध्याय में कहा गया है कि अतीत की घटनाओं के लिए अब किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.
आठवीं क्लास की सोशल साइंस की किताब का पार्ट-1 'एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडियन एंड बियॉन्ड' इसी हफ़्ते जारी हुई थी. एनसीईआरटी की नई किताबों में से यह पहली किताब है जो विद्यार्थियों को दिल्ली सल्तनत और मुग़लों से परिचित कराती है.
एनसीईआरटी की नई किताब में 13वीं से 17वीं सदी तक के भारतीय इतिहास को कवर किया गया है. इस किताब में सल्तनत काल को लूट-पाट और मंदिरों को तोड़ने के रूप में दिखाया गया है. इसके पहले की किताब में सल्तनत काल को इस रूप में पेश नहीं किया गया था.
अंग्रेज़ी अख़बारद हिन्दूके अनुसार, एनसीईआरटी की नई किताब में लिखा गया है कि चित्तौड़ के क़िले पर क़ब्ज़े के दौरान अकबर की उम्र 25 साल थी और उन्होंने 30 हज़ार नागरिकों के जनसंहार के साथ बच्चों और महिलाओं को ग़ुलाम बनाने का फ़रमान जारी किया था.
इस किताब में अकबर के हवाले से कहा गया है, ''हमने काफ़िरों के कई क़िलों और कस्बों पर क़ब्ज़ा कर लिया है और वहाँ इस्लाम की स्थापना की है. ख़ून की प्यासी तलवारों की मदद से हमने उनके मन से काफ़िरों के निशान मिटा दिए हैं. हमने वहाँ के मंदिरों को भी नष्ट कर दिया है.''
किताब में लिखा है कि अकबर अपने बाद के शासन में शांति और सद्भावना की बात करने लगते हैं.
द हिंदू के मुताबिक किताब में यह भी लिखा है कि औरंगज़ेब ने स्कूलों और मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया था. किताब के मुताबिक़ बनारस, मथुरा और सोमनाथ सहित जैनों के मंदिर और सिखों के गुरुद्वारे भी नष्ट किए गए. इसमें पारसियों और सूफ़ियों पर भी मुग़लों के कथित अत्याचार का भी ज़िक्र है.

एनसीईआरटी के इस बदलाव पर कई लोग सवाल उठा रहे हैं और कह रहे हैं कि सरकार जानबूझकर इतिहास को ग़लत तरीक़े से पेश कर रही है.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के संस्थापक सदस्य प्रोफ़ेसर मोहम्मद सुलेमान ने समाचार एजेंसी आईएएनएस से कहा, ''इस समय जो संगठन और विचारधारा सत्ता पर आसीन हैं, वे इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं. कोई भी विकसित समाज तभी आगे बढ़ सकता है, जब इतिहास को यथार्थ के संदर्भ में ले. लेकिन हमारी सरकार इतिहास को तोड़-मरोड़कर लिखवा रही है. लेकिन इससे देश का हित नहीं हो रहा है. ये अंधभक्तों को गुमराह कर सकते हैं लेकिन दुनिया में जब इतिहास पढ़ा जाएगा तो सच्चाई ही लोग पसंद करेंगे. ये अपने स्वाभिमान की तुष्टि के लिए कुछ भी कर रहे हैं.''
पूरे विवाद पर एनसीईआरटी ने भी जवाब दिया है.
एनसीईआरटी ने अपने जवाब में कहा है, ''आठवीं क्लास के लिए सोशल साइंस की नई किताब 'एक्सप्लोरिंग सोसाइटी, इंडिया एंड बीयॉन्ड' अब उपलब्ध है. यह किताब राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और स्कूली शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क 2023 के तहत लाई गई है.''
एनसीईआरटी ने कहा, ''इस किताब में भारतीय इतिहास की 13वीं सदी से 19वीं सदी के मध्य तक की अवधि को समेटा गया है. हमने इस किताब में दोहराव के बजाय आलोचनात्मक सोच को सामने रखा है. विश्वसनीय स्रोतों के आधार पर संतुलित विवरण को शामिल किया गया है. हमने एक विशेष अध्याय रखा है, जिसका नाम है- इतिहास के अंधकारमय अवधि पर एक टिप्पणी. इस किताब के ज़रिए युवा अध्येताओं को अतीत के साथ आधुनिक भारत के बनने की समझ विकसित होगी.''

एनसीईआरटी ने अपने बयान में कहा है, ''टेक्स्टबुक में सभी तथ्य विश्वसनीय अकादमिक स्रोतों के आधार पर हैं. हमारी पीढ़ियां किसी भी तरह के पूर्वाग्रह और भ्रम से बचें इसके लिए पृष्ठ संख्या 20 में इतिहास के अंधकारमय अवधि के नाम से एक टिप्पणी है.''
द हिन्दू से एनसीईआरटी में सोशल साइंस पाठ्यक्रम के एरिया ग्रुप हेड माइकल डैनिनो ने कहा, ''भारतीय इतिहास को सुखद नहीं बनाया जा सकता. हम ऐसा नहीं दिखा सकते हैं कि सब कुछ अच्छा ही था. कई अच्छी चीज़ें थीं लेकिन कई बुरी चीज़ें भी थीं. लोगों पर अत्याचार हुए थे. इसलिए हमने इतिहास के उस अध्याय को भी शामिल किया है.''
''साथ में हमने डिसक्लेमर भी दिया है कि अतीत में जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए आज किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं. आप मुग़ल शासकों को तब तक नहीं समझ सकते हैं, जब तक उनके व्यक्तित्व की जटिलता में नहीं जाएंगे. अकबर ने ख़ुद स्वीकार किया है कि वह जवानी के दिनों में क्रूर था. हम अकबर या औरंगज़ेब को नीचा नहीं दिखा रहे हैं बल्कि हम ये बता रहे हैं कि इन शासकों की अपनी सीमाएं थीं और इन्होंने बर्बरता की थी.''
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पूरे मामले पर इतिहासकार सैयद इरफ़ान हबीब से पूछा कि वह एनसीईआरटी की किताब में इस बदलाव को कैसे देखते हैं?
सैयद इरफ़ान हबीब कहते हैं, ''इतिहास तथ्यों के आधार पर लिखा जाता है. जब आप इतिहास को अपनी कल्पनाओं के आधार पर लिखने की कोशिश करते हैं तो वह इतिहास नहीं रह जाता है. जो भी पहले पढ़ाया जा रहा था, उससे आप असहमति जता सकते हैं लेकिन वो तथ्यों पर आधारित था. तथ्यों की व्याख्या से आपकी असहमति हो सकती है. लेकिन आप मान्यताओं के आधार पर इतिहास लिखेंगे तो वो इतिहास नहीं है.''
भारत की राजनीति में मध्यकाल को लेकर विवाद कोई नया नहीं है. इससे पहले महाराणा प्रताप और अकबर को लेकर भी विवाद हुआ था.
2019 में राजस्थान यूनिवर्सिटी ने एक बीजेपी विधायक के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रमों यह लिखा जाए कि हल्दीघाटी का युद्ध अकबर से महाराणा प्रताप हारे नहीं थे.
सैयद इरफ़ान हबीब कहते हैं, ''इनका कहना है कि हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप की जीत हुई थी और अकबर की हार. लेकिन ये बिना तथ्यों के आधार पर कुछ भी कहते हैं. तथ्य यह है कि हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप और मान सिंह की लड़ाई हुई थी. ये तो राजपूतों की लड़ाई थी. एक अकबर के लिए लड़ रहा था और एक अकबर के ख़िलाफ़. महाराणा प्रताप की फ़ौज का कमांडर हकीम ख़ान सूरी मुसलमान था. यह धर्म आधारित लड़ाई थी ही नहीं. मध्यकालीन भारत को धर्म के चश्मे से तो हम आज देख रहे हैं. धर्म का इस्तेमाल तो आप आधुनिक समय में कर रहे हैं.''

क्या मध्यकाल को इतिहास के अंधकारमय अध्याय के रूप में देखना चाहिए?
सैयद इरफ़ान हबीब कहते हैं, ''आप जिसे इतिहास का अंधकारमय अध्याय कह रहे हैं, उसी में रामचरित मानस लिखी गई. तुलसी दास, कबीर, अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना और मलिक मुहम्मद जायसी जैसी हस्तियां इस अवधि में अपनी बेहतरीन रचनाएं लिख रही थीं. क्या यह इतिहास का अंधकारमय अध्याय है?''
सैयद इरफ़ान हबीब कहते हैं, ''बाबर का इतिहास मुश्किल से चार साल का है. ये मध्यकालीन समय के शासक हैं. तब शासन संविधान नहीं तलवार के दम पर चलता था. इसमें धर्म आता ही नहीं है. उस अवधि में यूरोप में भी यही हो रहा था. उस वक़्त तलवार से ही फ़ैसले होते थे. 400 साल पुरानी बात पर आप कुछ भी कह दीजिए.''
''आप पूरी पीढ़ी को ऐसी किताबें दे रहे हैं, जो डिसकनेक्टेड इतिहास पढ़ेगी. इसमें कई तरह के गैप्स होंगे. ये भले डिसक्लेमर लगा रहे हैं कि अतीत के लिए आज किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं लेकिन ज़मीन पर तो ऐसा ही हो रहा है. दरअसल ये सरकार नागरिक नहीं अनुयायी तैयार करना चाहती है.''
भारत का दक्षिणपंथी खेमा ग़ुलामी की अवधि केवल अंग्रेज़ों के 200 साल के शासन को ही नहीं मानता है बल्कि पूरे मध्यकाल को भी ग़ुलाम भारत के रूप में देखता है.
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार 11 जून, 2014 को लोकसभा में बोल रहे थे. अपने पहले ही भाषण में मोदी ने कहा था, ''12 सौ सालों की ग़ुलामी की मानसिकता परेशान कर रही है. बहुत बार हमसे थोड़ा ऊंचा व्यक्ति मिले, तो सर ऊंचा करके बात करने की हमारी ताक़त नहीं होती है.''
प्रधानमंत्री की इस बात ने कई सवाल एक साथ खड़े किए. क्या भारत 1200 सालों तक ग़ुलाम था? क्या भारत ब्रिटिश शासन के पहले भी ग़ुलाम था?
पीएम मोदी ने जब 1200 साल की ग़ुलामी की बात कही थी तो उन्होंने आठवीं सदी में सिंध के हिंदू राजा पर हुए मीर क़ासिम के हमले (सन 712) से लेकर 1947 तक के भारत को गुलाम बताया. भारत में अंग्रेज़ों का शासनकाल मोटे तौर पर 1757 से 1947 तक माना जाता है, जो 190 साल है. इस हिसाब से गुलामी के बाकी तकरीबन एक हज़ार साल भारत ने मुस्लिम शासकों के अधीन गुज़ारे थे.
भारत में स्कूली किताबों के मुताबिक़, 1757 में पलासी के युद्ध में बंगाल के नवाब के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की जीत के बाद से भारत को ग़ुलाम माना जाता है, लेकिन अब भारत में इतिहास बदलने की बात हो रही है और कहा जा रहा है कि मध्यकाल में मुस्लिम शासक आक्रांता थे और उन्होंने भारत को ग़ुलाम बनाकर रखा था.
मध्यकाल के मुस्लिम शासकों को दक्षिणपंथी खेमा आक्रांता कहता है. इतिहास की अध्येता और जहाँगीर पर 'इंटिमेट पॉट्रेट ऑफ अ ग्रेट मुग़ल' किताब लिख चुकीं पार्वती शर्मा कहती हैं कि सत्ता के लिए एक दूसरे राज्य पर हमला करना कोई नई बात नहीं थी.
पार्वती कहती हैं, ''मौर्यों का शासन अफ़ग़ानिस्तान तक था, इस तरह तो वे भी आक्रांता हुए. सत्ता विस्तार और सत्ता पाने की चाहत को हम चाहे जिस रूप में देखें. इस चाहत का किसी ख़ास मज़हब से कोई रिश्ता नहीं है.''
बाबर और हुमायूं मध्य एशिया से आए थे. अकबर हिन्दुस्तान से बाहर कभी नहीं गए. अकबर के बाद जितने मुग़ल शासक हुए सबका जन्म भारत में ही हुआ था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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